उद्विकास || Evolution
उद्विकास (Evolution)
डार्विन के प्राणीशास्त्रीय उद्विकास के सिद्धान्त के आधार पर अनेक मानवशास्त्रियों ने समाज तथा संस्कृति के विकास को समझाने का प्रयत्न किया। उनका कहना है कि जिस प्रकार प्राणीशास्त्रीय शरीर का उद्दिद्वकास कुछ निश्चित नियमों के अनुसार होता है, उसी प्रकार समाज एवं संस्कृति का विकास हुआ है। सामाजिक उद्विकास को समझने के लिए यह आवश्यक है कि पहले डार्विन के उद्दिकासीय सिद्धान्त को समझ लिया जाए क्योंकि इसी पर सामाजिक उद्दिकास का सिद्धान्त आधारित है। परन्तु इससे भी पहले उद्दिकास के अर्थ एवं परिभाषा का विवेचन करना आवश्यक होगा।
उद्विकास का अर्थ एवं परिभाषाएँ
(Meaning and Definitions of Evolution)
साधारण शब्दों में, उद्विकास का अर्थ है-एक सादी और सरल वस्तु का धीरे-धीरे एक जटिल अवस्था में बदल जाना अर्थात् जब कुछ निश्चित स्तरों में से गुजरती हुई कोई सादी या सरल वस्तु एक जटिल वस्तु में परिवर्तन हो जाती है तो उसे उद्विकास कहते हैं।
मैकाइवर तथा पेज- "उद्विकास परिवर्तन की एक दिशा है जिसमें कि बदलते हुए पदार्थ की विविध दशाएं प्रकट होती हैं और जिससे कि उस पदार्थ की असलियत का पता चलता है।"
ऑगबर्न तथा निमकॉफ "उद्विकास केवल मात्र एक निश्चित दिशा में परिवर्तन है।"
हरबर्ट स्पेन्सर का सामाजिक उद्विकास का सिद्धान्त (Herbert Spencer's Theory of Social Evolution)
हरबर्ट स्पेन्सर का कथन है कि उद्दिद्वकास के उपरोक्त नियम समाज और संस्कृति के सम्बन्ध में भी लागू होते हैं जैसा कि निम्नलिखित विवेचना से स्पष्ट है-
(1) प्रारम्भ में या अति आदिम युग में समाज अत्यधिक सादा और सरल था। इसके विभिन्न अंग इस प्रकार घुले मिले होते थे कि उन्हें पृथक् नहीं किया जा सकता। एक परिवार ही सामाजिक, आर्थिक तथा राजनैतिक सभी प्रकार के कार्यों को करता था। इतना ही नहीं, प्रत्येक व्यक्ति केवल अपने परिवार के बारे में ही जानता और करता था। सभी के कार्य, पेशे और विचार प्रायः एक-से होते थे। इस दृष्टिकोण से सभी व्यक्ति प्रायः संमान थे। परन्तु धीरे-धीरे उनके अनुभव, विचार तथा ज्ञान में उन्नति हुई, उन्हें मिलकर काम करना आ गया और साथ ही सामाजिक तथा सांस्कृतिक जीवन के विभिन्न अंग स्पष्ट होते गए। उदाहरण के लिए, परिवार, राज्य, कारखाना, धार्मिक संस्था, श्रमिक संघ, ग्राम, नगर आदि स्पष्ट रूप में विकसित हुए।
(2) विकास के दौरान समाज के विभिन्न भाग जैसे-जैसे स्पष्ट होते जाते हैं, वैसे-वैसे प्रत्येक अंग एक विशेष प्रकार का कार्य करने लगता है। अर्थात् समाज के विभिन्न अंगों के बीच श्रम-विभाजन और विशेषीकरण हो जाता है। परिवार एक विशेष प्रकार का कार्य करता है, तो राज्य दूसरे प्रकार का, स्कूल तथा कॉलेज तीसरे प्रकार का कार्य, मिल और कारखाने अन्य प्रकार के कार्य तथा श्रमिक संघ पृथक-पृथक कार्यों को करते हैं। यह हो ही नहीं सकता कि परिवार राज्य कार्य करें, राज्य श्रमिक संघ का या श्रमिक संघ धार्मिक संस्थाओं का।
(3) समाज के विभिन्न अंगों के विकसित हो जाने से उनमें श्रम-विभाजन और विशेषीकरण हो जाता है परन्तु वे एक दूसरे से पृथक या पूर्णतया. परे नहीं होते। उनमें कुछ निश्चित अन्तःसम्बन्ध और अन्तः निर्भरता बनी रहती है। परिवार राज्य से सम्बन्धित तथा उस पर निर्भर है और राज्य परिवार से सम्बन्धित और उस पर निर्भर है; उसी प्रकार शिक्षक, कृषक, धोबी, मेहतर, जुलाहा इन सबमें एक अन्तःसम्बन्ध तथा अन्तःनिर्भरता होती है।
4) उद्विकास की यह प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। इस प्रकार एक सम्पूर्ण समाज का निर्माण अनेक वर्षों में धीरे-धीरे होता है।
(5) सामाजिक उद्विकास की प्रक्रिया कुछ निश्चित स्तरों से गुजरकर होती है, इस दौरान समाज का सरल रूप धीरे-धीरे जटिल रूप धारण कर लेता है। उदाहरण के लिए, आर्थिक जीवन के प्रारम्भ में अदला-बदली (barter system) से काम शुरू किया गया, पर अब उस सादी और सरल व्यवस्था ने अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का रूप धारण कर लिया है। पहले लोग सीधे-सादे तौर पर पैदल चलते थे; अब वायुयान की रफ्तार का कहना ही क्या। पहले व्यक्ति का जीवन अधिक से अधिक परिवार तक सीमित था, पर अब वही जीवन अन्तर्राष्ट्रीय जीवन हो गया है। यह विकास एक दिन में नहीं हुआ है, बल्कि धीरे-धीरे कुछ निश्चित स्तरों में से होकर गुजरा है। जैसे आर्थिक क्षेत्र में उद्विकास के प्रमुख स्तर हैं- (i) शिकार करने का स्तर, (ii) चरागाह का स्तर, (iii) कृषि का स्तर, और (iv) औद्योगिक स्तर।
इस प्रकार, हम कह सकते हैं कि पहले समाज सरल था और उसके विभिन्न अंग अभिन्न थे अर्थात् एक-दूसरे से अधिक घुले मिले थे। पर, धीरे-धीरे सामाजिक जीवन के विभिन्न अंग स्पष्ट और पृथक् होते गए और उनमें श्रम-विभाजन और विशेषीकरण हुआ। परन्तु यह भिन्नता (differentiation) होने पर भी विभिन्न अंगों में समन्वय (integration) बना रहा अर्थात् विभिन्न अंग एक-दूसरे से सम्बन्धित तथा एक-दूसरे पर निर्भर हैं। साथ ही इन दोनों तत्त्वों की क्रियाशीलता के फलस्वरूप ही समाज का अस्तित्व सम्भव होता है। इसीलिए यह कहा गया है कि समाज समन्वय और विभिन्नता का एक गतिशील सन्तुलन है।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें