सामाजिक परिवर्तन की अवधारणा || CONCEPT OF SOCIAL CHANGE





 सामाजिक परिवर्तन की अवधारणा
(CONCEPT OF SOCIAL CHANGE)


परिवर्तन प्रकृति का एक शाश्वत एवं अटल नियम है। मानव समाज भी उसी प्रकृति का अंग होने के कारण परिवर्तनशील है। समाज की इस परिवर्तनशील प्रकृति को स्वीकार करते हुए मैकाइबर लिखते हैं, "समाज परिवर्तनशील एवं गत्यात्मक है।" बहुत समय पूर्व ग्रीक विद्वान हेरेक्लिटिस ने भी कहा था. "सभी वस्तुएं परिवर्तन के बहाव में हैं।" उसके बाद भी इस बात पर बहुत विचार किया जाता रहा है कि मानव की क्रियाएं क्यों और कैसे परिवर्तित होती हैं? समाज के वे क्या विशिष्ट स्वरूप हैं जो व्यवहार में परिवर्तन को प्रेरित करते हैं? समाज में आविष्कार परिवर्तन कैसे लाते हैं एवं आविष्कार करने वालों की शारीरिक विशेषताएं क्या होती हैं? परिवर्तन को शीघ्र ग्रहण करने एवं ग्रहण न करने वालों की शरीर रचना में क्या भिन्नता होती है? क्या परिवर्तन किसी निश्चित दिशा से गुजरता है? यह दिशा रेखीय है या चक्रीय ? परिवर्तन के सन्दर्भ में इस प्रकार के अनेक प्रश्न उठाये गये तथा उनका उत्तर देने का प्रयास किया गया। मानव में परिवर्तन को समझने के प्रति जिज्ञासा पैदा हुई। उसने परिवर्तनों के कारणों को ढूंढने, उनकी दिशा का पता लगाने और परिवर्तनों पर नियन्त्रण पाने का प्रयास किया।


परिवर्तन क्यों और कैसे होते हैं, ये प्रश्न आज भी पूरी तरह हल नहीं हो पाये हैं। अंग्रेज कबि लॉर्ड टेनिसन का मत है कि 'प्राचीन क्रम में नये को स्थान देने के लिए परिवर्तन होता है।' प्रो. ग्रीन लिखते हैं, "सामाजिक परिवर्तन इसलिए होता है क्योंकि प्रत्येक समाज सन्तुलन के निरन्तर दौर से गुजर रहा है। कुछ व्यक्ति एक सम्पूर्ण सन्तुलन की इच्छा रख सकते हैं तथा कुछ इसके लिए प्रयास भी करते हैं।" सामाजिक परिवर्तन एक अवश्यम्भावी तथ्य है। इसकी निश्चितता को प्रकट करते हुए प्रो. डेबिस कहते हैं, "हम स्थायित्व एवं सुरक्षा के लिए निरन्तर प्रयत्नशील हो सकते हैं, समाज के स्थायित्व का भ्रम चारों ओर फैलाया जा सकता है, निश्चयात्मक के प्रति खोज निरन्तर बनी रह सकती है, और विश्व अनन्त है इस विषय में हमारा विश्वास दृढ़ हो सकता है, लेकिन यह तथ्य सदैव विद्यमान रहने वाला है कि विश्व के अन्य तत्वों की तरह समाज अपरिहार्य रूप से और बिना किसी छूट के सदैव परिवर्तित होता रहता है।"


परिवर्तन क्या है
(WHAT IS CHANGE)

परिवर्तन का सामान्य तात्पर्य है- किसी क्रिया अथवा वस्तु की पहले की स्थिति में बदलाव आ जाना। परिवर्तन को स्पष्ट करते हुए फिचर लिखते हैं, "संक्षेप में, परिवर्तन पहले की अवस्था या अस्तित्व के प्रकार में अन्तर को कहते हैं।" परिवर्तन का सम्बन्ध प्रमुख रूप से तीन बातों से है- (i) वस्तु, (ii) समय, एवं (iii) भिन्नता।

(1) बस्तु (Object) परिवर्तन का सम्बन्ध किसी-न-किसी विषय अथवा वस्तु से होता है। जब हम कहते हैं कि परिवर्तन आ रहा है तब हमें यह भी स्पष्ट करना होता है कि परिवर्तन किस वस्तु अथवा विषय में आ रहा है। विना वस्तु को बताये हम परिवर्तन का अध्ययन नहीं कर सकते।

(2) समय (Time) परिवर्तन का समय से घनिष्ठ सम्बन्ध है। परिवर्तन को प्रकट करने के लिए हमारे पास कम-से-कम दो समय होने चाहिए। एक ही समय में परिवर्तन की चर्चा नहीं की जा सकती। उदाहरण के लिए, हम कहते हैं कि भारत वैदिक-काल की तुलना में वर्तमान समय में बहुत कुछ बदल गया है। समय के सन्दर्भ में ही परिवर्तन ज्ञात होता है। समय की अवधारणा को सम्मिलित किये बिना कोई भी परिवर्तन के बारे में सोच भी नहीं सकता।

(3) भिन्नता (Variation)- विभिन्न समयों में यदि किसी वस्तु में भिन्नता नहीं आये तो परिवर्तन नहीं कहलायेगा। वस्तु के स्वरूप में यदि समय के साथ अन्तर न आये तो हम यही कहेंगे कि परिवर्तन नहीं हुआ है, अतः वस्तु के रंग-रूप, आकार-प्रकार, संरचना, कार्य अथवा अन्य पक्षों में भिन्नता प्रकट होने पर ही हम परिवर्तन का अध्ययन कर सकते हैं।

  • इस प्रकार हम कह सकते हैं कि किसी वस्तु में दो समय में दिखायी देने बाली भिन्नता ही परिवर्तन है।


परिवर्तन एक सार्वभौमिक प्रक्रिया है जो सभी कालों एवं स्थानों में घटित होती रहती है। परिवर्तन के कारण किसी वस्तु के समस्त ढांचे में परिवर्तन आ सकता है अथवा उसका कोई एक पक्ष ही बदल सकता है। परिवर्तन किसी भी दिशा में हो सकता है। परिवर्तन स्वतः आ सकता है अथवा जान-बूझकर योजनाबद्ध रूप से भी लाया जा सकता है। यह अच्छाई एवं बुराई की तरफ तथा तीव्र एवं मन्द किसी भी गति से हो सकता है।

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