समाजशास्त्र का विषय-क्षेत्र: SCOPE OF SOCIOLOGY
समाजशास्त्र का विषय-क्षेत्र
(SCOPE OF SOCIOLOGY)
इंकल्स कहते हैं कि "समाजशास्त्र परिवर्तनशील समाज का अध्ययन करता है, इसलिए समाजशास्त्र के अध्ययन की न तो कोई सीमा निर्धारित की जा सकती है और न ही इसके अध्ययन क्षेत्र को बिल्कुल स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जा सकता है।" क्षेत्र का तात्पर्य यह है कि वह विज्ञान कहां तक फैला हुआ है। अन्य शब्दों में क्षेत्र का अर्थ उन सम्भावित सीमाओं से है जिनके अन्तर्गत किसी विषय या विज्ञान का अध्ययन किया जा सकता है। समाजशास्त्र के विषय-क्षेत्र के सम्बन्ध में विद्वानों के मतों को मुख्यतः दो भागों में बांटा जा सकता है :
(1) स्वरूपात्मक अथवा विशिष्टात्मक सम्प्रदाय
(Formal or Specialistic or Particularistic School), तथा
(2) समन्वयात्मक सम्प्रदाय
(Synthetic School)।
प्रथम मत या विचारधारा के अनुसार समाजशास्त्र एक विशेष विज्ञान है और द्वितीय विचारधारा के अनुसार समाजशास्त्र एक सामान्य विज्ञान है।
(1) स्वरूपात्मक सम्प्रदाय (Formal School)
इस सम्प्रदाय के प्रवर्तक जर्मन समाजशास्त्री जार्ज सिमैल हैं। इस सम्प्रदाय से सम्बन्धित अन्य विद्वानों में वीरकान्त, वान विज, मैक्स वेबर तथा टानीज, आदि प्रमुख हैं। इस विचारधारा से सम्बन्धित समाजशास्त्रियों की मान्यता है कि अन्य विज्ञानों जैसे राजनीतिशास्त्र, भूगोल, अर्थशास्त्र, इतिहास, भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र, आदि के समान समाजशास्त्र भी एक स्वतन्त्र एवं विशेष विज्ञान है। जैसे प्रत्येक विज्ञान की अपनी कोई प्रमुख समस्या या सामग्री होती है जिसका अध्ययन उसी शास्त्र के अन्तर्गत किया जाता है, उसी प्रकार समाजशास्त्र के अन्तर्गत अध्ययन की जाने वाली भी कोई मुख्य सामग्री या समस्या होनी चाहिए। ऐसा होने पर ही समाजशास्त्र एक विशिष्ट एवं स्वतन्त्र विज्ञान बन सकेगा और इसका क्षेत्र निश्चित हो सकेगा। इस सम्प्रदाय के मानने वालों का कहना है कि यदि समाजशास्त्र को सम्पूर्ण समाज का एक सामान्य अध्ययन बनाने का प्रयत्न किया गया तो वैज्ञानिक आधार पर ऐसा करना सम्भव नहीं होगा। ऐसी दशा में समाजशास्त्र एक खिचड़ी-शास्त्र बन जायेगा। अतः समाजशास्त्र को एक विशिष्ट विज्ञान बनाने के लिए यह आवश्यक है कि इसके अन्तर्गत सभी प्रकार के सामाजिक सम्बन्धों का अध्ययन नहीं करके इन सम्बन्धों के विशिष्ट स्वरूपों का अध्ययन किया जाय। सामाजिक सम्बन्धों के 'स्वरूपात्मक पक्ष' पर जोर देने के कारण ही इस सम्प्रदाय को 'स्वरूपात्मक सम्प्रदाय' कहा जाता है।
(2) समन्वयात्मक सम्प्रदाय (Synthetic School)
इस सम्प्रदाय के प्रमुख समर्थकों में सोरोकिन, दुर्खीम, हाबहाउस तथा गिन्सबर्ग, आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं जो समाजशास्त्र को एक विशिष्ट विज्ञान बनाने के बजाय एक सामान्य विज्ञान बनाने के पक्ष में हैं। इन विद्वानों के अनुसार समाज के सम्बन्ध में सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के लिए समाजशास्त्र के क्षेत्र को केवल सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों तक सीमित नहीं रखा जा सकता। इसे तो सम्पूर्ण समाज का सामान्य अध्ययन करना है और इस सम्बन्ध में इस सम्प्रदाय के समर्थकों ने दो तर्क दिये हैं:
(1) समाज की प्रकृति जीवधारी शरीर के समान है जिसके विभिन्न अंग एक-दूसरे के साथ घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं और एक अंग में होने वाला कोई भी परिवर्तन दूसरे अंगों को प्रभावित किये बिना नहीं रह सकता है। अतः समाज को समझने के लिए उसकी विभिन्न इकाइयों या अंगों के पारस्परिक सम्बन्ध को समझना अत्यन्त आवश्यक है। यह कार्य उसी समय हो सकता है जब समाजशास्त्र को एक सामान्य विज्ञान बनाया जाय और इसके क्षेत्र को काफी व्यापक रखा जाय।
(2) समाजशास्त्र को एक सामान्य विज्ञान बनाने के पक्ष में एक अन्य तर्क यह दिया गया है कि प्रत्येक सामाजिक विज्ञान के द्वारा समाज के किसी एक भाग या पक्ष का ही अध्ययन किया जाता है। उदाहरण के रूप में, राजनीति शास्त्र द्वारा समाज के एक पक्ष - राजनीतिक जीवन का ही अध्ययन किया जाता है। इसी प्रकार अर्थशास्त्र के द्वारा आर्थिक जीवन का अध्ययन किया जाता है। ऐसा कोई भी सामाजिक विज्ञान नहीं है जो सामाजिक जीवन के सभी पक्षों का या सम्पूर्ण समाज का समग्र रूप में अध्ययन करता हो। अतः समाजशास्त्र को एक सामान्य विज्ञान के रूप में यह कार्य करना है। ऐसा होने पर ही समाज की वास्तविक प्रकृति को समझा जा सकता है। इसके अभाव में समाज के सम्बन्ध में हमारा ज्ञान काफी संकुचित और एकाकी हो जायेगा। वास्तव में समाजशास्त्र को लोगों को सामाजिक जीवन की सामान्य अवस्थाओं से परिचित कराने की दृष्टि से महत्वपूर्ण भूमिका निभानी है और यह उसी समय सम्भव है जब इसके क्षेत्र को एक सामान्य विज्ञान के रूप में विस्तृत किया जाय।
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